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हमारे ऐतिहासिक गर्व को  ‘जूठन’ का तमाचा

सालभर पहले जब मेरे एक मराठी दोस्त के पास मैंने इस किताब को देखा था तो समझ गया था कि कोई मार्मिक उपन्यास होगा. उसने भी मुझे इसको पढ़ने की सलाह दी थी लेकिन मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. लेकिन पीछले सप्ताह मॉल में ऐसे ही घूमते हुए जब जूठन को देखा तो हाथ में लेने से अपने को रोक नहीं पाया. फिर उलट पलट करने के बाद खरीद ही लिया जबकी मैं फैसला करके गया था कि मॉल से कुछ खरीदूंगा नहीं क्योंकी मैं बिना जरूरत के भी चीजें खरीद लेता हूं. जिससे मेरा वित्त प्रबंधन बिगड़ जाता है.

किताब घर लाकर मैं आशंकित था कि इस किताब का भी हाल इस साल के मेरे अन्य किताबों की तरह न हो जाये जिन्हें अभी तक मैंने पूरा नहीं किया है. लेकिन अंततः 3 दिनों में जूठन के दोनों खंड पढ़ चूका हूं.

जूठन न सिर्फ ओमप्रकाश वाल्मीकि जी कि आत्मकथा थी बल्कि मैं भी अपने फ्लैशबैक में चला गया था. मैं वाल्मीकि जी कि तरह उस जातीय प्रताड़ना को झेला तो नहीं था लेकिन स्थिति को मैं जीवंत देख पा रहा था. वाल्मीकि जी जब बताते हैं कि उनकी बस्ती के लोग किसी कार्यक्रम में कैसे बचे हुए जूठन का अपनी थाली में इंतजार करते थे. उस अमानवीय तरीके को भी लोग मजबूरी में खुशी से सहन करते थे.
मेरे गॉव में अभी भी डोम समुदाय के लोगों को किसी समारोह में सभी के खाना खिला देने के बाद खिलाया जाता है वह भी उस सम्मान के साथ नहीं जैसा की बाकी लोगों को खिलाया जाता है. अब लोग बस इतने मानवीय हैं कि जूठन नहीं देते बाकी किसी बात में कोई तब्दीली नहीं आई है. अभी भी मायें अपने बच्चों को कहती हैं कि “बबुआ डोमवा में मत छुअईह” यह एक जातीय दंभ तो है ही लेकिन इसका कारण वे बच्चों को डोम समुदाय द्वारा सूअर पालना बताती हैं.

मुझे जूठन के एक एक शब्द अंदर से झकझोर रहे थे. मैंने अपने छोटे से करियर में ही पढ़े लिखे संभ्रांत और अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोगों को जातीय दंभ में जीते देखा है. चाहे वो राजस्थान का चुरू हो या उत्तर प्रदेश का सीतापुर या लखनऊ हर जगह जातीय श्रेष्ठता पाले लोगों से सामना हुआ है. अलग बात है उसका मैं शिकार नहीं हूं. लेकिन समान्य चर्चाओं में ही उनके गर्व दिखने लगते हैं.

जूठन का पहला खंड जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अपने शुरूआती जीवन जो उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने गॉव में बिताये, ज्यादातर उसका जिक्र किया है.
यह खंड पढते हुए  मुझे  4 महीने पहले अपने बाबा के तेरहवीं के दिन के तस्वीरें याद आने लगीं थी. हम 21 सदी में भी कहां ही मानवीय हो पाये हैं. मेरे यहां भी ढ़ेरों स्वादिष्ट व्यंजन बने हुए थे. बहुत से लोग आमंत्रित थे, उनमें गॉव के डोम समुदाय भी थे. लेकिन वो सभी के खाने के बाद अंत में सभी के लिए लगाए गए टेबल कुर्सी पर नहीं बल्कि नीचे खाने के लिए बाध्य थे. और उनको खाना भी उस तन्मयता के साथ नहीं खिलाया जा रहा था  जैसा बाकी अतिथियों को. वे भी पता नहीं क्यों इसी में खुश रहते हैं. परिस्थितियां बदली हैं लेकिन इतनी भी नहीं कि हम गर्व कर सकें अपने वर्तमान पर.
शायद कम से कम मैं अब उनको अपने घर के किसी कार्यक्रम में नीचे खाते हुए नहीं देख सकता. जूठन के पढ़ने के बाद मैं इतनी हिम्मत तो कर ही सकता हूं. और मेरी इच्छा है कि मेरे गॉव से भी मेरे जीवनकाल में एक डोम समुदाय का बच्चा ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की तरह समाज से लड़ते हुए एक इज्जतदार पद पर आसिन हो. वो केवल नौकरी ही न करे बल्कि ओमप्रकाश जी की तरह समाज को एक आईना भी दिखाये जो कहते हुए नहीं थकती की अब जाति का भेद कहां रह गया है.

जूठन के दूसरे खंड में ओमप्रकाश जी ने अपने पेशेवर जीवन में जाति की वजह से झेले गए भेदभाव को सबूतों के साथ रखा है. वे उन सहकर्मियों और अपने साहित्यकार दोस्तों के किस्से भी सुनाते हैं जो इस समाजिक उत्पीड़न से लड़ने में हमेशा उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे. 
मुझे अफसोस है कि मैं ओमप्रकाश जी से नहीं मिल सकता. लेकिन उनकी आत्मकथा ने बहुत प्रभावित किया है मुझे. मैं यह किताब अपने सभी साथियों को पढ़ने की सलाह दूंगा.